Saturday, February 13, 2010

कविता : अब हैरान हूँ मैं ….

जीवन की इस भीड़ भरी महफ़िल में,
एक ठहरा हुआ सा वीरान हूँ मै,
क्यों आते हो मेरे यादों के मायूस खंडहरों में ,
अब चले जाओ बड़ा परेशान हूँ मै …

तुमसे मिलकर ही सजोयी थी चंद खुशियाँ मैंने,
पर तुम्हें समझ ना पाया ऐसा अनजान हूँ मैं,
बड़ा मासूम बनकर उस दिन जो बदजुबानी की थी,
तो आज गैर क्यों ना कहें कि बड़ा बदजुबान हूँ मै,

तुने अच्छा किया जो मुझे जिल्लतें बेरुखियाँ दी,
मुझे तो खुशी है की तेरी जिल्लत भरी जुबां हूँ मै,
जिस शाम के बाद किसी सहर की उम्मीद ही ना हो,
वैसा ही मनहूस ढलता हुआ एक शाम हूँ मैं,

मुर्दों के जले भी जहां अब जमाने हो गए,
ऐसा ही सुनसान एक श्मशान हूँ मैं,
मै तुमको भूल गया इसमे तो मेरी ही साजिश थी,
पर तू जो भूल गया मुझको तो अब हैरान हूँ मैं…….

गांधी जी, संघ और हम

‘बापू हम शर्मिन्दा हैं…’ शीर्षक से उनके बलिदान-दिवस पर जैसी एकांगी, तथ्यों के विपरीत टिप्पणियाँ एक दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित हुई हैं, उन्हें पढ़कर किसी भी उस प्रबुद्ध व्यक्ति को गहरा मानसिक क्लेश होना सहज स्वाभाविक है, जिसे स्वतंत्रता संग्राम का थोड़ा-सा भी ज्ञान है। गांधी जी इस महान देश के एक महापुरुष हैं, इससे किसी को क्या इनकार हो सकता है? परन्तु विश्व भर में ऐसे अनेक ‘महापुरुष’ हुए हैं, जिन्हें जब उस देश, राष्ट्र, समाज के हिताहित की कसौटी पर कसा गया, तो वे खरा 22 कैरेट न निकलकर 14 कैरेट का निकले। मात्र 25-30 वर्ष के अंतराल में ही किसी भी कथित महापुरुष का आकलन करना इतिहास प्रारंभ कर देता है। स्वतन्त्रता के 62 वर्षों बाद गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद जैसे व्यक्तित्त्वों का ही नहीं, जिन्ना का सम्यक् आकलन करने में इतिहास ने कोई कोताही नहीं की है। जिस प्रकार जिन्ना को ‘सेक्यूलर’ बताकर लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी जीवन भर की कमायी कीर्ति पर धब्बा लगवा लिया, उससे सौ कदम आगे जाकर जसवन्त सिंह ने जिन्ना को ‘दूध का धुला’ और नेहरू जी को विभाजन का दोषी बताकर अपने अब तक के सब करे-धरे पर पानी फेर लिया, यह हम सब के सामने है।
इतिहास यथासमय ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ करने में चूक नहीं करता। जो जितना ही बड़ा व्यक्तित्त्व होता है, उससे भूल भी उतनी ही बड़ी होती है। गांधी ने भी लोकमान्य तिलक के स्वर्गवास (1 अगस्त, 1920) के पश्चात् कांग्रेस का नेतृत्व सँभालते ही जो पहली सबसे बड़ी भूल की थी, वह थी कांग्रेस के असहयोग-आन्दोलन को खलीफा की गद्दी बहाल करने के मुस्लिम मौलानाओं के आन्दोलन ‘खिलाफतों की पूँछ में बाँध देना। इस भूल का ही अंतिम दुष्परिणाम देश को अनपेक्षित घोर त्रासद विभाजन के रूप में झेलना पड़ा, इसे आज प्रायः सभी विद्वतजन स्वीकार करते हैं। गान्धी जी की दूसरी भूल थी ‘करो या मरो’ नारे के साथ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की बिना कांग्रेस की सहमति के घोषणा कर देना। परिणाम हुआ जिन्ना को अपना खेल खेलने के लिए खुला मैदान मिल गया। अन्य छोटी-मोटी भूलें भी उनसे हुईं; पर सबसे घातक भूल थी पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने के लिए आमरण अनशन कर केंद्र सरकार को बाध्य करना। और यह भूल न केवल उनके लिए, वरन् देश के लिए भी आत्मघाती सिध्द हुई। उनकी दुर्घट मृत्यु के आधार पर नेहरू जी की सरकार ने जैसा घनघोर मिथ्या दुष्प्रचार रा.स्व. संघ के विरुध्द किया, उसी का भीषण परिणाम 1991-92 में हजरतगंज लखनऊ से निकाला गया मुद्राराक्षस, रूपरेखा वर्मा जैसे डेढ़-दो दर्जन वामपंथियों का वह जुलूस था, जिसमें यह अत्यंत हिंसाप्रेरक तथा विधि-व्यवस्था की स्थिति को संकट में डालनेवाला घोर आपत्तिजनक नारा लगाया गया- ‘बापू हम शर्मिन्दा हैं, तुम्हारे कातिल जिन्दा हैं।’ यह नारा सीधे-सीधे रा.स्व. संघ को लक्ष्य कर गढ़ा और लगाया गया था, जबकि संघ की गान्धी-हत्या जैसे जघन्य अपराध से दूर-दूर तक कोई झूठमूठ का भी सम्बंध नहीं था। न्यायाधीश आत्माराम की विशेष अदालत का तद्विषयक सुस्पष्ट निर्णय था और संघ को ससम्मान दोषमुक्त घोषित किया गया था। अत्यंत दुःख का विषय है कि अपनी निष्पक्षता, भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति निष्ठा और राष्ट्रहित की सर्वोपरिता को माननेवाले समाचार-पत्र ने इस घिनौने नारे के पूर्वार्ध्द को अपना शीर्षक बनाने में कोई आगा-पीछा नहीं सोचा।
जिन अन्य सज्जनों (उनमें जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में मन्त्री रहे एक महानुभाव भी हैं) की टिप्पणियों को उनके नाम से प्रकाशित किया गया है, सम्भवतः उन्हें यह ज्ञात नहीं है या ज्ञात है, तो उसे पी गये हैं कि जिस ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के शासन-काल में खंडित रूप में भारत को स्वतंत्रता दी गयी थी, उसी ने भूतपूर्व प्रधानमंत्री के रूप में अपने भारत आगमन पर कलकत्ता के राजभवन में तत्कालीन कार्यकारी राज्यपाल न्यार्यमूत्ति बी.एन. चक्रवर्ती के यह पूछने पर कि जब द्वितीय विश्वयुध्द में आप विजयी हो चुके थे, तो भारत को स्वतंत्रता देने की ऐसी क्या मजबूरी थी, तो एटली का स्पष्ट उत्तर था कि हम जीत तो गये थे; पर भारतीय सेना में विद्रोही तेवर ऐसे थे कि हम सैन्य-बल से उसे दबा नहीं सकते थे।’ सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज का सेना पर प्रभाव स्वीकार करने पर राज्यपाल चक्रवर्ती ने जिज्ञासा की ‘और गान्धी जी’, तो एटली का सपाट उत्तर था ‘एकदम नाममात्र का। हमने चर्खा, तकली के भय से भारत नहीं छोड़ा।’ इसके बाद भला कहने को क्या बचता है? साफ है कि देश नेताजी, उनकी आजाद हिंद फौज के भारतीय सेना पर प्रभाव, नेवी-विद्रोह के कारण ही स्वतंत्र हुआ, ऐसे में कौन कहता है कि सुप्रसिध्द राष्ट्रवादी फिल्म गीतकार इसी लखनऊ के निवासी पं. प्रदीप रचित गीत- ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत ने कर दिया कमाल’, सरकार के धुऑंधार गांधी प्रचार के प्रभाव में नहीं लिखा गया था और संत टुकड़ोजी महाराज ने इसे अपना मधुर स्वर दिया था। आज अन्यान्य अभिलेख इस गीत की इन पंक्तियों को सत्य से परे सिध्द कर चुके हैं। स्वतः सिद्ध है कि इस गीत की भक्ति-भावना निष्कलुष होते हुए भी इतिहास की कसौटी पर खरी उतरने में अक्षम है।
रही बात संघ की, तो वह कभी गांधी-विरोधी नहीं रहा। उसके ‘एकात्मता-स्तोत्र’, जिसे प्रातः स्मरण में नित्य स्वयंसेवक पढ़ते हैं, के श्लोक 29 में गांधी जी को प्रातः स्मरणीय माना गया है- ‘दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गांधिरादृता’ इतना ही नहीं, संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर जी का नाम बाद में श्लोक 31 में ‘…केशवो माधवस्तथा’ में आता है। परन्तु यदि किसी ने गलत नंबर का चश्मा अपनी ऑंखों पर चढ़ा रखा हो, तो उसे क्या कहा जाये?

व्यंग्य/ एक सफल कार्यक्रम

पहली बार हिमालय के हिमपात के मौसम और अपनी गुफा को अकेला छोड़ गौतम और भारद्वाज मुनि दिल्ली सरकार के राज्य अतिथि होकर राजभवन में हफ्ते भर से जमे हुए थे। पर ठंड थी कि उन्हें हिमालय से भी अधिक लग रही थी।
सुबह के दस बजे होंगे कि भारद्वाज मुनि अपने वीवीआईपी कमरे से सजधज कर बाहर निकले। उस वक्त गौतम अपनी धोती को निचोड़कर सामने लगी तार पर सूखने के लिए फैला रहे थे, ‘और मुनिवर! आज की रात कैसी कटी? टीवी पर कौन सी फिल्म देखी?’ कह भारद्वाज मुनि ने शैम्पू से धुली अपनी लटों को हाथों से पीछे किया।
‘क्या बताऊं बंधु, यहां तो सबकुछ अजीब से लग रहा है। अब तो बस मौसम विभाग की उस भविष्‍यवाणी का इंतजार है कि कब जैसे वह कहे कि हिमालय पर अब मौसम सुहाना हो जाएगा तो अपने ठांव चलें। हफ्ता हो गया हमें यहां रहते हुए पर दिल्ली में दिल लग ही नहीं रहा। लगता है ये दुनियादारी अपने बस की नहीं। अपना हिमालय ही ठीक है। ये नई पीढ़ी के मुनि पता नहीं दिल्ली को ही क्यों परेफर करते हैं। यहां से उठने का नाम ही नहीं लेते। सूर्य नमस्कार कर लिया क्या?’ धोती को तार पर पूरी तरह फैलाने के बाद पास ही वेटर द्वारा रखी काफी का घुट लेते हुए उन्होंने पूछा।
‘हां तो, वह तो उठते ही कर लिया था, क्यों?? जाहिर है हम पुरानी पीढ़ी के संतों का दिन सूर्य नमस्कार से ही षुरु होता है और इस पीढ़ी के संतों का दिन नेताओं की चौखट पर नमस्कार से।’ कह वे रात को देखी फिल्म के सीनों को याद करते हुए मुसकुराते रहे।
‘कहां हैं सूर्य देव! मैं तो पिछले एक हफ्ते से उन्हें ही इस दिल्ली में ढूंढ रहा हूं। सच कहूं, जबसे दिल्ली में आया हूं सूर्य के दर्शन ही नहीं हुए हैं। अब तो कमरे की बत्ती जला उसे ही सूर्य का प्रतीक मान सूर्य नमस्कार करना पड़ेगा।’ कह वे काफी का घूंट लेने के बाद भी बहुत परेशान लगे।
‘मैं तो हफ्ते भर से यही कर रहा हूं। अब समझा दिनभर तुम्हारे बाहर न निकलने का कारण। बंधु! ये दिल्ली है ! यहां हर चीज के दर्शन हो सकते हैं पर प्रकृति के नहीं।’
‘तो ???’
‘तो क्या!! अब तो नकली का जमाना है। अचार भी नकली, विचार भी नकली। जीने के लिए ओढ़े जाओ, सबके साथ दौड़े जाओ। दिल्ली में सूर्य की जरूरत है भी कहां! एक से एक धुरंधर तो यहां सूर्य से भी तेज लिए चमक रहे हैं। उन्हें नमस्कार करो और आगे बढ़ो। यही यहां की रीत है।’
‘तो ठीक है,’ कह गौतम मुनि ने गहरी सांस ली, ‘पर तुम जा कहां जा रहे हो यों सज-धज कर?’
‘अरे भूल गए?? शाम को फोन नहीं आया था एड्स सोसाइटी वालों का कि हमें वे आयोजन का अध्यक्ष बना रहे हैं। वहीं के कार्यक्रम के लिए ही तो तैयार होकर आया हूं। सोचा था तुम भी तैयार हो गए होंगे पर तुम तो….’
‘देखा न! फिर भूल गया। इस दिल्ली की चकाचौंध ने तो रामकसम सबकुछ भुला कर रख दिया है। पर हम वहां करेंगे क्या! हम ठहरे संयमी… एड्स के बारे में हमें पता ही क्या है?’
‘अब न कैसें करें? कहेंगे मुनि बड़े चौड़े हो रहे हैं। चलो कमरे में जले रहे बल्ब को सूर्य का प्रतीक मान नमस्कार करो और कार्यक्रम के लिए पांच मिनट में तैयार हो जाओ। उनकी गाड़ी हमें लेने बीस मिनट बाद आएगी।’ पालिका बाजार से विदेशी खरीदी घड़ी में टाइम देखते भारद्वाज मुनि ने ठहाका लगाया तो आस पास के कमरों में ठहरे राज्य अतिथि जाग पड़े।
‘पर तुम ही जा आओ! मेरा मन नहीं कर रहा। अभी प्रभु स्मरण भी नहीं किया। शौच निवृत्त भी नहीं हुआ। सच कहूं! बहुत भारी खिलाती है सरकार! ये अफसर पता नहीं कैसे पचाते होंगे।’
और गौतम मुनि को लाख मनाने की कोशिश के बाद भी भारद्वाज मुनि को अकेले ही एड्स सोसाइटी के कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए जाना पड़ा। डरे हुए तो वे भी थे। पर क्या करते! हां हो गई तो हो गई!
शाम को कार्यक्रम से लौट कर आए तो गौतम मुनि ने डरते डरते उनसे पूछा, ‘और कैसा रहा कार्यक्रम?’
‘मजा आ गया!! तुमने एक बहुत अच्छे कार्यक्रम की अध्यक्षता का गोल्डन चांस खो दिया। हिमालय में गुफा से बाहर नहीं निकलते और यहां अपने कमरे से। आज साधु संतों को भी एक्सपोजर चाहिए यार!’
‘तो तुमने क्या कहा अध्यक्षीय भाषण में?’
‘मजे की बात!वह तो हुआ ही नहीं। बस कुर्सी पर बैठ सामने रखे काजू बादाम खाता रहा। कार्यक्रम तयशुदा टाइम से तीन घंटे बाद षुरू हुआ। मंत्री महोदय लेट थे। वे आए तो समोसे चले। फिर काफी। फिर काफी…..सब कार्यक्रम को भूल उनकी सेवा में लगे रहे। दो घंटे उनका भाशण हुआ। उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियां टेप की तरह गिनाईं, फिर विपक्ष को गालियों का दौर शुरू हुआ। वे थे कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। आयोजकों को उनको रोकने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी। उन्हें गुस्सा आ गया तो आयोजकों ने इस गुस्ताखी के लिए क्षमा मांगी, अपने दोनों कान पकड़ बोले, ‘विपक्ष को गालियां देने के लिए आपका एक और कार्यक्रम रख देंगे, ‘तो वे अपने भाषण को समाप्त करते बोले, ‘समाज से कुरीतियों को जड़ से समाप्त करने के लिए ऐसे कार्यक्रम नितांत आवश्‍यक हैं। मैं तो कहता हूं ऐसे कार्यक्रम रोज होने चाहिएं।’ कार्यक्रम को बहुत सफल बताते हुए आयोजकों को कार्यक्रम की सफलता की बधाई दे मंच छोड़ने को तैयार हुए कि पूरा हाल तालियों से गूंज उठा।
‘फिर??’
‘फिर खाना तैयार था। वाह ! क्या संसारी पकवान थे। मजा आ गया। ऐसा खा खा कर सरकार में दुराचार नहीं फैलेगा तो क्या होगा?
‘पर ये एड्स है क्या??’
‘यही तो मैं भी अभी तक सोच रहा हूं कि ये होगी क्या! पर कार्यक्रम बड़ा सफल था। सभी एक दूसरे से यही कह रहे थे।’

Wednesday, February 10, 2010

रंगीन पतंगें

अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

कुछ सजी हुई सी मेलों में
कुछ टंगी हुई बाज़ारों में
कुछ फंसी हुई सी तारों में
कुछ उलझी नीम की डालों में
उस नील गगन की छाओं में
सावन की मस्‍त बहारों में

कुछ कटी हुई कुछ लुटी हुई
पर थीं सब अपने गांव में
अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

था शौक मुझे जो उड़ने का
आकाश को जा छू लेने का
सारी दुनिया में फिरने का
हर काम नया कर लेने का
अपने आंगन में उड़ने का
ऊपर से सबको दिखने का
फिर उड़ कर घर आ जाने का
दादी को गले लगाने का
कैसी अच्‍छी होती थीं बेफ़िक्र उमंगें
अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

अब बसने नये नगर आया
सब रिश्‍ते नाते छोड आया
उडने की चाहत में रहकर
लगता है मैं कुछ खो आया

दिल कहता है मैं उड जाऊं
बनकर फिर से रंगीन पतंग
कटना है तो फिर कट जाऊं
बन कर फिर से रंगीन पतंग
लुटना है तो फिर लुट जाऊं
बन कर फिर से रंगीन पतंग
आकाश में ही फिर छुप जाऊं
बन कर फिर से रंगीन पतंग

पर गिरूं उसी आंगन में
और मिलूं उसी ही मिट्टी में
जिसमें सपनों को देखा था
जिसमें बचपन को खोया था
जिसमें मैं खेला करता था
जिसमें मैं दौड़ा करता था
जिसमें मैं गाया करता था सुरदार तरंगें
जिसमें दिखती थीं मेरी ख़ुशहाल उमंगें
जिसमें सजतीं थीं मेरी रंगदार पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

हां, अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

-imran haider 

Tuesday, February 2, 2010

इमरान हैदर की कविता: गांधी की आवाज़

फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको

खौफ़ और दर्द ने क्‍योंकर यूं झिंझोड़ा मुझको

मैं तो सोया हुआ था ख़ाक के उस बिस्‍तर पर

जिस पर हर जिस्‍म नयीं ज़िन्दगी ले लेता है

बस ख़्यालों में नहीं अस्‍ल में सो लेता है

आंख खुलते ही एक मौत का मातम देखा

अपने ही शहर में दहशत भरा आलम देखा

किस कदर खौफ़ ज़दा दर्द की आवाज़ थी वो

बूढी बेबा की दम तोडती औलाद थी वो

एक बिलख़ते हुये मासूम की किलकार थी वो

कुछ यतीमों की सिसकती हुई फ़रियाद थी वो

मुझको याद आया इस बार वो बचपन मेरा

कुहर की धुंध में लिपटा हुआ सपना मेरा

तब हम अनेक हैं हैवानियत के पांव तले

तब हम सोचते थे सब्‍ज़ और खुशहाल वतन

अब हम देखते हैं ग़र्क और लाचार वतन

तब फूल थे खुशियां थीं और हम सब थे

अब भूख है ग़मगीरी और हम या तुम

तब तो जीते थे हम और तुम हम सबके लिये

अब न वो इंसान रहा और न वो भगवान रहा

बस दूर ही दूर तक फैला हुआ हैवान रहा

देख लो सोच लो शायद तुम सम्‍भल पाओगे

रूह और जिस्‍म के रिश्‍तों को समझ पाओगे

अरश से आती है कानों में यह गांधी की सदा

क्‍या ‘रज़ा’ इस तरह तुम चैन से सो पाओगे

-इमरान हैदर

मत आना लौट कर

मत आना इस धरा पर

तुम लौट कर,

इस विश्वास के साथ कि

तुम्हारे तीनों साथी अब भी

बैठे होंगे,

कान आंख और मुंह बंद कर

बुरा ना सुनने, देखने और कहने के लिए,

मत आना तुम इस धरा पर लौट कर

इस आशा के साथ कि

तुम्हारी लाठी अब भी तुम्हारे रास्ते का हमसफ़र होगी

अब तुम्हारी लाठी राहगीरों को रास्ता दिखाने के काम नहीं आती

तुम्हारी लाठी है,

सत्ता के नशे में चूर, घंमड़ी और स्वार्थी मदमस्तों का सहारा,

मत आना इस धरा पर

तुम लौट कर ,

क्योंकि यहां बदल चुके हैं तुम्हारें जीने के मायने और

बदल चुकी है तुम्हारे आस्था के मायने

-इमरान हैदर

Friday, January 29, 2010

कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है...

कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है
मै तुझसे दूर कैसा हू तू मुझसे दूर कैसी है
ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है
मोहबत्त एक अहसासों की पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है
यहाँ सब लोग कहते है मेरी आँखों में आसूं है
जो तू समझे तो मोती है जो ना समझे तो पानी है
मै जब भी तेज़ चलता हू नज़ारे छूट जाते है
कोई जब रूप गढ़ता हू तो सांचे टूट जाते है
मै रोता हू तो आकर लोग कन्धा थपथपाते है
मै हँसता हू तो अक्सर लोग मुझसे रूठ जाते है
समंदर पीर का अन्दर लेकिन रो नहीं सकता
ये आसूं प्यार का मोती इसको खो नहीं सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता
भ्रमर कोई कुम्दनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोह्बत्त का
मै किस्से को हक्कीकत में बदल बैठा तो हंगामा
बहुत बिखरा बहुत टूटा थपेडे सह नहीं पाया
हवाओं के इशारों पर मगर मै बह नहीं पाया
अधूरा अनसुना ही रह गया ये प्यार का किस्सा
कभी तू सुन नहीं पाई कभी मै कह नहीं पाया