Wednesday, February 10, 2010

रंगीन पतंगें

अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

कुछ सजी हुई सी मेलों में
कुछ टंगी हुई बाज़ारों में
कुछ फंसी हुई सी तारों में
कुछ उलझी नीम की डालों में
उस नील गगन की छाओं में
सावन की मस्‍त बहारों में

कुछ कटी हुई कुछ लुटी हुई
पर थीं सब अपने गांव में
अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

था शौक मुझे जो उड़ने का
आकाश को जा छू लेने का
सारी दुनिया में फिरने का
हर काम नया कर लेने का
अपने आंगन में उड़ने का
ऊपर से सबको दिखने का
फिर उड़ कर घर आ जाने का
दादी को गले लगाने का
कैसी अच्‍छी होती थीं बेफ़िक्र उमंगें
अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

अब बसने नये नगर आया
सब रिश्‍ते नाते छोड आया
उडने की चाहत में रहकर
लगता है मैं कुछ खो आया

दिल कहता है मैं उड जाऊं
बनकर फिर से रंगीन पतंग
कटना है तो फिर कट जाऊं
बन कर फिर से रंगीन पतंग
लुटना है तो फिर लुट जाऊं
बन कर फिर से रंगीन पतंग
आकाश में ही फिर छुप जाऊं
बन कर फिर से रंगीन पतंग

पर गिरूं उसी आंगन में
और मिलूं उसी ही मिट्टी में
जिसमें सपनों को देखा था
जिसमें बचपन को खोया था
जिसमें मैं खेला करता था
जिसमें मैं दौड़ा करता था
जिसमें मैं गाया करता था सुरदार तरंगें
जिसमें दिखती थीं मेरी ख़ुशहाल उमंगें
जिसमें सजतीं थीं मेरी रंगदार पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

हां, अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

-imran haider 

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